Wednesday, December 28, 2005

नए साल के लक्षय

१)अबके जो नौकरी ली है अगर निकाला नही गया तो कमसकम साल भर यहाँ पर काम करुँगा.
२)साल भर किराए के मकान में रहुँगा नही तो कमसकम ६ महीने तो रहुँगा ही. जो मजा दूसरों को कङकती ठंड में फोन करके बोलने का है "दद्दु पानी बह रहा है, ठीक करो" वह मकान मालिक बनने के सिरदर्द में कहाँ.
३)हर हफ्ते कमसकम ३ - ४ घंटे वर्जिश करुँगा. पूरे जनवरी नही तो पहले २ हफ्ते तो करुँगा ही.
४)हर महीने २ किताबें पढुँगा. १ काल्पनिक और दूसरी अकल्पनिय :) (फिक्शन और नाॅन-फिक्शन)
५)हर हफ्ते १ चिठ्ठा प्रविष्ठी जरुर लिखुँगा.
६)हर सप्ताहंत पर ५ फोटो जरुर निकालुँगा.
७)हर महीने १ सप्ताहंत पर बाहर घूमने जरुर जाऊँगा.
८)घर पर दिन में ज्यादा से ज्यादा १ घंटा कम्पयुटर पर बिताऊँगा.
९)जो तीर-कमान का कोर्स में ३ साल से करने का सोच रहा हुँ इस साल गर्मियोँ में जरुर करुँगा.
१०)बेटे को गर्मियोँ में हर महीने १ बार मछली पकङने जरुर ले जाऊँगा.

सबसे जरुरी अगले साल की विश लिस्ट दिसंबर के पहले हफ्ते तक जरुर बना लुँगा.
आप भी बताएँ की आप के क्या लक्षय हैं नए साल के लिए.

Tuesday, December 27, 2005

क्या बात है, आने वाली नए साल की पहली रात है.

यह प्रविष्ठी है मेरे पिछले साल की प्रमुख गतिविधियों का लेखा-जोखा. साल शुरु हुआ था एक नए काम से. ८-९ महीने का अनुबंध था जो मित्र के बार - २ बोलने पर ले लिया था. काम रुचिकर रहा, दोस्तों के साथ काम करके मजा भी बहुत आया, सीखने भी बहुत कुछ मिला. अभी - २ नयी नौकरी मिल गई है जिसमे फिर कुछ पुराने यार दोस्त मिल रहे हैं. कार्य एकदम नए क्षेत्र में है. कुछ नया करने - सीखने को मिलेगा ऐसी उम्मीद है.

बेटा ईस साल और बढा हो गया है. साल की शुरुआत में चिन्ता थी की ३ साल का हो गया और फर्राटे से बोल नही रहा. अब समस्या है की चुप ही नही होता. सुबह से शाम तक लगातार बोलता रहता है. मेरा बेटा पैदाईशी टीनऐजर है. हर बात की वजह जरुरी है समझना. बहस में अव्वल नम्बर. हर मसले को सही से बच्चा लाॉॅजिक में समझाओ नही तो हजार सवाल झेलो. हमसे ईस साल झेला नही गया तो हमने बता दिया की सैंटा असली जिंदगी में नही है. सुन कर जितना सुकून उसे मिला मानो गया में बुद्ध को महाप्रयाण मिल गया हो. जहाँ सुन्दर बालाएं दिखीं छोटे कपङों में वहीं पर बालक पास जाने का भरसक प्रयास शुरु कर देता है. ४ में यह हाल है १४-१५ में क्या होगा. माताजी के स्वास्थय में इस वर्ष काफी सुधार आया. यहाँ आकर रहीं ६-७ महीने तो मन प्रसन्न रहा. श्रीमती जी के नसीब में ईस साल भी एक बार साल में मेरे हाथ का चाय या खाना मिलने का सपना अधूरा रह गया. मेरा मानना है की
जिसका काम उसी को साझे
और करे तो डंका बाजे
पहले ही फैल जाओ तो कभी चान्स ही ना छोङो. आशीष ध्यान रखें.

घूमने में ईस साल यूटाह और कोलराडो की हसीन वादियाँ और पहाङ, लोस एन्जलस का डिजनीलैंड, लास वैगास के केॅसीनो और शो, नयूयोर्क की क्रिसमस की चकाचौंध, सैन फ्रांसिसको के पास के विनयार्ड की सैेर, ग्रांड कैनयन के विशाल गढ्ढे का दर्शन प्रमुख गतिविधियाँ रहीं. भारत जाने का कार्यक्रम तो अब २००८ में ही बनेगा.
पुरानेॅ शौक में क्रिकेट बरकरार रहा. शतरंज और सु-डोकु का शौक भी चर्रा रहा है. सेहत के लिए अब टैनिस में भी मन लगा रहा हुँ. दिन में २४ घंटे ही क्यों होते हैं?
ब्लागिंग का चस्का और बढ गया है. भारतीय मूल के लेखकों के भेजे से निकली खिचङी पढ कर खबरें, नए विचार, मनोरंजन सभी मिला. बहुत किस्मत की बात लगी इतने सारे नए मित्रों का मिलना. बेबाक विचारों का आदान-प्रदान, नोंक-झोंक सभी कुछ आनंददायी रहा.
सेहत के मामले में वर्ष कुछ सही नही रहा. कोहनी में चोट लगने के कारण २-३ महीने दर्द रहा. वजन भी सेनसेकस के समान बढा. पर जब खेलना शुरु तो वजन भी कम होने लगा. बाबा रामदेव की सी.डी. मित्र से मिल गई है जिसके साथ १ तारीख से नियम से कसरत करने का ईरादा है.

आज थकान हो रहीं है. कल आगे लिखुँगा. डायरीनुमा प्रविष्ठी है, बोर हुए तो क्षमा.

Tuesday, December 20, 2005

वयस्तता का मौसम

आजकल वयस्तता का मौसम है. काम ईतने सारे सिर पर आ पङे हैं की साँस लेने की भी फुरसत नही है. और सारे के सारे काम जो हैं सो बे-सिर-पैेर के. साल के आखिरी में टैक्स प्लानिंग के काम, घर की मरम्मत के काम ईत्यादि. जमाने भर की चुलबाजी और मोल ले रखी है. ऊपर से नौकरी पर भी क्यों कर दिसंबर में काम का बोझ बढ गया है कुछ समझ नही आ रहा है. जनता जनार्दन भी लपक के क्रिसमस पार्टी दिए जा रही है सो उस में मुँह-दिखाई करके आना भी जरुरी है. बोलो की नही आ पाीउँगा तो करारा मुख-तमाच मिलता है "हाँ भाई,व्यस्त हो. सही है. बढे लोग हो हमारा क्या है."
ईसी वजह से पिछले कुछ दिनों में रद्दी - कचरा मानसिक कै नही कर पा रहे हैं चिठ्ठे पर. लगता है यह वयस्तता "नए साल का पहला जाम .. आप के नाम" के बाद ही कुछ कम होगी.

ईन दिनों पुन: रवि शंकर जी की पुस्तकें पढना शुरु करी हैं. सही बताऊँ ज्यादा कुछ समझ में नही आती मेरे. पर पढने से नींद बहुत जल्दी और बहुत गहरी आती है. काफी सारा समय मेरा आजकल सु डोकु में जा रहा है. बहुत रोचक और समय बरबाद करने वाला खेल है. जरुर खेलिएगा एक बार. साथ ही आजकल में चैस सिखने की भी कोशिश कर रहा हुँ. आफिस में बैठ कर कम्पयुटर देव के साथ खेलता रहता हुँ. आपको लगता होगा मुफ्त की तनख्वाह मिल रही है पर काम भी बहुत है सो लंच-काल में ही यह सब चल रहा है. ईमान से ८ घंटे काम कर रहा हुँ. बहुत ज्यादा होता है यह कम्पयुटर की दुनिया में.

रेसिपी:
अंडा - नोग लातें

1 कप अंडा नोग :)
1 चम्मच रम
1 चम्मच विस्की
1 कप गरम काफी
1/3 कप काफी लि-कोर या 1/3 कप बेली आईरिश क्रीम

सब साॉथ मिलाअो, जम कर फैंटो और छक कर पियो, मगर दोस्तों के साथ.

Saturday, December 17, 2005

अनुगूंज १६: (अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?

यही आदर्शवाद सिखाया था की आखिरी वक्त पर प्रविष्ठी चेपों !
खैर देरी माफ स्वामी जी कार्य क्षेत्र में वयस्तता के चलते देरी हो गई. Akshargram Anugunj
तो मसला है संस्कारों का, आदर्शवाद का बङे - २ शब्दों का जो अपने कुछ ज्यादा समझ में नही आए. हमें घर में कभी भी नही सिखाया गया की बेटा सच बोलो, मेहनत करो, कमजोरों का सहारा बनों टाौईप की शिक्षा. पिताजी बहुत मेहनती थे. पक्के कर्मयोगी. ईमानदारी से जीवन-यापन करते थे. काम हमेशा चुस्त मुस्तैद. नेतागिरी से दूर पर राजनैतिक पहचान बनाए हुए. बहुत धार्मिक भी थे. गरीबों के लिए दान-दक्षिणा भी बहुत करते थे. माताजी बहुत सरल स्वभाव की हमेशा से थी. जो मन में रहता है फौरन बोल देती हैं. बहुत धार्मिक हैं और किसी का दुख देखना उनके बस की बात नही है. मजेदार बात यह है की ना माताजी ने ना पिताजी ने कभी बैठा कर संस्कारों का पाठ दिया. जो देखा वही सीखा. हालाँकि में बिलकुल भी धार्मिक नही हुँ, जरुरत लगे तो सच-झूट एक कर देता हुँ पर कभी कमीनापन, टुच्चापन और जो हलकटपंती देसियों में देखी जाती है अकसर, खास तौर पर विदेश में उससे दूर रहता हुँ.
मेरा मानना है की हमें "किस्स" सिद्धांत का पालन करना चाहिए. इस्से पहले की शुक्ला जी मोहल्ले भर में प्पपियाँ झप्पियाँ बाँटने लगें मैं स्पष्टीकरण दे देता हुँ की यहाँ बात हो रही है "" यानी "" की. जितना सरल उतना सब की समझ में आएगा और कोई गलतफहमी का भी मौका नही किसी को. तो सबसे बङी सीख जो मैने अपने माता-पिता से सीखी है वो यही है की सरल बनो. छोटा-मोटा नफा-नुकसान शायद हो जाए पर कुल जमा सही ही हिसाब बैठता है.
जो मैने घर-समाज से सिखा वो बेटे को दे पाना मुमकिन नही है, क्योंकि घर भी अलग है, समाज भी. यहाँ की मान्यताएं अलग हैं. बस कोशिश यही रहती है की बेटे के कोमल मन पर तस्वीरें सच्ची बनें, स्पष्ट बनें और उनमें प्रेम,विश्वास, सरलता, सहयोग, मानवता का रंग कहीं न कहीं दिखे. बाकी सब बातें मैने सतही जानी है. बाकी अगर ज्यादा सिखाने की कोशिश की तो कन्फुज हो जाएगा. क्यों कर मै उसको संस्कृत की क्लास में बिठाऊँ, हिन्दी बोल ले उतना काफी है, वो भी ईसलिए क्योंकी भारत में रिश्तेदारों की अंग्रेजी कमजोर है.