अनुगूंज १६: (अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?
यही आदर्शवाद सिखाया था की आखिरी वक्त पर प्रविष्ठी चेपों !
खैर देरी माफ स्वामी जी कार्य क्षेत्र में वयस्तता के चलते देरी हो गई.
तो मसला है संस्कारों का, आदर्शवाद का बङे - २ शब्दों का जो अपने कुछ ज्यादा समझ में नही आए. हमें घर में कभी भी नही सिखाया गया की बेटा सच बोलो, मेहनत करो, कमजोरों का सहारा बनों टाौईप की शिक्षा. पिताजी बहुत मेहनती थे. पक्के कर्मयोगी. ईमानदारी से जीवन-यापन करते थे. काम हमेशा चुस्त मुस्तैद. नेतागिरी से दूर पर राजनैतिक पहचान बनाए हुए. बहुत धार्मिक भी थे. गरीबों के लिए दान-दक्षिणा भी बहुत करते थे. माताजी बहुत सरल स्वभाव की हमेशा से थी. जो मन में रहता है फौरन बोल देती हैं. बहुत धार्मिक हैं और किसी का दुख देखना उनके बस की बात नही है. मजेदार बात यह है की ना माताजी ने ना पिताजी ने कभी बैठा कर संस्कारों का पाठ दिया. जो देखा वही सीखा. हालाँकि में बिलकुल भी धार्मिक नही हुँ, जरुरत लगे तो सच-झूट एक कर देता हुँ पर कभी कमीनापन, टुच्चापन और जो हलकटपंती देसियों में देखी जाती है अकसर, खास तौर पर विदेश में उससे दूर रहता हुँ.
मेरा मानना है की हमें "किस्स" सिद्धांत का पालन करना चाहिए. इस्से पहले की शुक्ला जी मोहल्ले भर में प्पपियाँ झप्पियाँ बाँटने लगें मैं स्पष्टीकरण दे देता हुँ की यहाँ बात हो रही है "" यानी "" की. जितना सरल उतना सब की समझ में आएगा और कोई गलतफहमी का भी मौका नही किसी को. तो सबसे बङी सीख जो मैने अपने माता-पिता से सीखी है वो यही है की सरल बनो. छोटा-मोटा नफा-नुकसान शायद हो जाए पर कुल जमा सही ही हिसाब बैठता है.
जो मैने घर-समाज से सिखा वो बेटे को दे पाना मुमकिन नही है, क्योंकि घर भी अलग है, समाज भी. यहाँ की मान्यताएं अलग हैं. बस कोशिश यही रहती है की बेटे के कोमल मन पर तस्वीरें सच्ची बनें, स्पष्ट बनें और उनमें प्रेम,विश्वास, सरलता, सहयोग, मानवता का रंग कहीं न कहीं दिखे. बाकी सब बातें मैने सतही जानी है. बाकी अगर ज्यादा सिखाने की कोशिश की तो कन्फुज हो जाएगा. क्यों कर मै उसको संस्कृत की क्लास में बिठाऊँ, हिन्दी बोल ले उतना काफी है, वो भी ईसलिए क्योंकी भारत में रिश्तेदारों की अंग्रेजी कमजोर है.
खैर देरी माफ स्वामी जी कार्य क्षेत्र में वयस्तता के चलते देरी हो गई.
तो मसला है संस्कारों का, आदर्शवाद का बङे - २ शब्दों का जो अपने कुछ ज्यादा समझ में नही आए. हमें घर में कभी भी नही सिखाया गया की बेटा सच बोलो, मेहनत करो, कमजोरों का सहारा बनों टाौईप की शिक्षा. पिताजी बहुत मेहनती थे. पक्के कर्मयोगी. ईमानदारी से जीवन-यापन करते थे. काम हमेशा चुस्त मुस्तैद. नेतागिरी से दूर पर राजनैतिक पहचान बनाए हुए. बहुत धार्मिक भी थे. गरीबों के लिए दान-दक्षिणा भी बहुत करते थे. माताजी बहुत सरल स्वभाव की हमेशा से थी. जो मन में रहता है फौरन बोल देती हैं. बहुत धार्मिक हैं और किसी का दुख देखना उनके बस की बात नही है. मजेदार बात यह है की ना माताजी ने ना पिताजी ने कभी बैठा कर संस्कारों का पाठ दिया. जो देखा वही सीखा. हालाँकि में बिलकुल भी धार्मिक नही हुँ, जरुरत लगे तो सच-झूट एक कर देता हुँ पर कभी कमीनापन, टुच्चापन और जो हलकटपंती देसियों में देखी जाती है अकसर, खास तौर पर विदेश में उससे दूर रहता हुँ.
मेरा मानना है की हमें "किस्स" सिद्धांत का पालन करना चाहिए. इस्से पहले की शुक्ला जी मोहल्ले भर में प्पपियाँ झप्पियाँ बाँटने लगें मैं स्पष्टीकरण दे देता हुँ की यहाँ बात हो रही है "" यानी "" की. जितना सरल उतना सब की समझ में आएगा और कोई गलतफहमी का भी मौका नही किसी को. तो सबसे बङी सीख जो मैने अपने माता-पिता से सीखी है वो यही है की सरल बनो. छोटा-मोटा नफा-नुकसान शायद हो जाए पर कुल जमा सही ही हिसाब बैठता है.
जो मैने घर-समाज से सिखा वो बेटे को दे पाना मुमकिन नही है, क्योंकि घर भी अलग है, समाज भी. यहाँ की मान्यताएं अलग हैं. बस कोशिश यही रहती है की बेटे के कोमल मन पर तस्वीरें सच्ची बनें, स्पष्ट बनें और उनमें प्रेम,विश्वास, सरलता, सहयोग, मानवता का रंग कहीं न कहीं दिखे. बाकी सब बातें मैने सतही जानी है. बाकी अगर ज्यादा सिखाने की कोशिश की तो कन्फुज हो जाएगा. क्यों कर मै उसको संस्कृत की क्लास में बिठाऊँ, हिन्दी बोल ले उतना काफी है, वो भी ईसलिए क्योंकी भारत में रिश्तेदारों की अंग्रेजी कमजोर है.
3 Comments:
यार ये "हलकटपंती" वर्ड बडे दिनो बाद सुना - टिपिकल अपने इलाके का है!
लेख सनन है एकदम!
बढ़िया लिख मारा बिना नकल किये।
de se hi sahi, lekin achha likhe ho. Swami ji jaroor tumhari pravishthi ko shaami larenge.
aur haan,comment maine jaan boojh kar ANGREJI/ROMAN mein likha hai, kyonki tum Aalsi number one, doosron ke blog par aise hi comment likhte ho na, Ab jhelo.
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