Sunday, January 02, 2005

चोट

अभी कुछ दिनों पहले खेलते में कुछ माँस पेशियाँ खिँच गईं । तो जैसा मित्रों का कर्तव्य होता है, सभी ठहाके मार के हँसे हमारे दर्द पर । उमर नही रही खेलने की आदि ताने भी मिल गऍ । हमने भी खिँची कमर और दुखी मन से खीँसे नपोरे । ऍक सज्जन जो अभिन्न मित्र हैं और डाक्टर हैं, उनहोने सलाह दी जैसे हर अभिन्न मित्र जो डाक्टर हैं उनका हक बनता है । हमने सोचा चलो डाक्टर हैं कुछ सही ही कह रहे होंगे आजमा लिया जाऍ । जम के उनकी बताई हुइ कसरतें करीं । लगे रहे हफ्ते भर । पर शरीर भी हमारा नवाबी तबियत का है । टुट जाऍगा पर मेहनत नही करेगा । अल्लाह ! जो जोङो की बारह बजी है, कसम से ! "अनुभव" के शेखर सुमन जैसी हालत हो गई है । गुलाम अली साहब की आवाज गुँज गई "ईतना टुटा हुँ की छूने से बिखर जाऊँगा" ।

बेगम ने अपने अन्दाज में चिन्ता दिखाई । "क्या हुआ ? अच्छा खेलते समय चोट लग गई थी । कोई बात नही शोपिंग बैग मैं उठा लूँगी ।" हम सोचते रह गऍ की क्या तात्पर्य है इसका । अब तन, मन से तो टूटे हुऍ हैं, धन से तुम तोङ दो ।

अभी पूरी तरह से आराम चालू है । सोफे पर पङे पङे फुटबाल देखा जा रहा है । पर दिल में जोश है । अगले हफ्ते फिर क्रिकेट के मैदान पर दौङ लगाई जाऍगी ।
"हम होंगे कामयाब ऍक दिन,
मन में है विश्वास, पुरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब ऍक दिन"

3 Comments:

Blogger आलोक said...

कोई बात नही शोपिंग बैग मैं उठा लूँगी पसन्द आया

8:14 PM  
Blogger Raman said...

अच्छा लिखा है ...

11:03 PM  
Blogger Jitendra Chaudhary said...

अरे भइया, सोफे पर बैठे बैठे ही एक आध ब्लाग पोस्ट लिख मारो...
जाने कब फिर दुबारा चोट लगे.....
मौके का फायदा तुरन्त उठाया जाय.

11:54 AM  

Post a Comment

<< Home