Sunday, March 13, 2005

बचपन की चुलबाजी

सातवीं अनुगूंज - बचपन के मीत

Akshargram Anugunj


पहले तो ठलुआनरेश को साधुवाद | ठलुआ नरेश सही सोचे की बचपन पर तो हर ठलुआ २ ‍४ लाईने छाप ही देगा |

नोस्टालजिया का चश्मा चढ़ा दे,
फिर कलम की धार देख ले |

अब मसला यह है की बचपन पर क्या बकैती करें | होली, दिवाली, ईश्क, चन्दा तो जीतू भैया पहले ही छाप चुके हैं |
अब बचा दन्गा तो चलिऍ बात करें दन्गे की | तो बात है १९९२ की | बाबरी मस्जिद गिराई गई थी और हम पुराने भोपाल में घुम रहे अन्जान, मस्त कलदंर बन के | मेरे अभिन्न मित्र नदीम ने उसके बङे भाई से जीप चुराई या निकाली थी | खुली जीप में चुलबाजी कर रहे थे | अचानक दुकानें बन्द होने लगी, दूर से धुँआ उठता दिखा | मालूम पङा हो रहा है कहीँ दन्गा | अचानक खुद को पाया दन्गे के बीचो बीच | दोस्त लोग भागे जीप के अन्दर | पान्डे जिसको सबसे ज्यादा मार पिटाई का शौक था बन गया पहरेदार टायर चढ़ाने का जैक ले कर | हमने ३ ४ बार तो सुनी आवाज लोहा और सर टकराने की पर सही कहें तो हमारी तो ङर के मारे घिघ्गी बन्ध गई थी | किसी तरह बचते बचाते नऐ भोपाल पहुँचे | पान्ङे को उस दिन के बाद किसी माताजी की हङकान नही मिली | यकीन माने उस दिन के बाद से नदीम ने उस जीप की तरफ नही देखा | विचित्र बात यह है की मुझे उस घटनाक्रम का सिर्फ धुँआ, हल्ला, बन्द होती दुकाने और सर पर खङा पान्डे ही याद है | उस दिन के बाद पान्डे का नाम हो गया था हनुमान | कुछ दिन पहले मिला था देस में और अब तो शरीर भी हनुमाननुमा हो गया है |

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