अनुगूँज १५ -- हम फिल्में क्यूँ देखते हैं ?
सोचने की बात यह है की हम अभी तक फिल्में क्यों देख रहे हैं? सही सवाल है. आज कल ईतने मनोरंजन के साधन है. टी.वी. के कार्यक्रम, किक्रेट मैच, बास्केटबाल, फुटबाल मैच, वीडियो और कम्पयुटर गेम, दोस्तबाजी, काम, घूमना फिरना आदि. अब ईतने सब के बाद भी किसी के पास फिल्में देखने का समय कैसे बचता है. ऊपर से हिन्दी फिल्में होती हैं पूरे २.५ - ३ घंटे की. अधिकांश में कहानी होती है १ घंटे या कम की. बाकी का समय होता है नााच-गाने, फूहङता, चकाईबाजी, फैॅशनबाजी ईत्यादि का. ईतने समय में आप २ अंग्रेजी फिल्में आराम से निपटा सकते हैं वो भी बिना सरदर्द के. तो लिखना था की फिल्में क्यों देखते हैं और मैं यह पा रहा हुँ की कोई खास वजह नही है हिंदी फिल्में देखने की. कुछ एक बढिया फिल्में बीच - २ में बन पङती हैं जैसे ईकबाल, धूम, बंटी - बबली ईत्यादि जो सही में बांधे रख लेती हैं वरना तो फिल्में ज्यादातर में फास्ट-फोरवर्ड कर के ही देखता हुँ. पर देखता जरुर हुँ. वैसे कईएक फिल्में तो श्रीमती जी के जबरदस्त अनुरोध के बाबत देखनी पङ जाती हैं. ईस श्रेणी में बागबान आती है. जो फिल्में में अकसर देखता हुँ उनमें शुमार है ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का. शहरी मध्यम वर्ग की गुदगुदाती बिना फुहङता की कामेडी देखने को मन बार - बार लालायित जो हो जाता है.
जहाँ तक हालिवुड फिल्मों का सवाल है, मुझे बचपन से जबरदस्त चसका रहा है मार-धाङ की फिल्मों का. अब तक बरकरार है. पहले कुछ समझ नही आता था की डायलाग क्या हैं. "सु सायँ वेरेवर गु हु हुावेरेव " धाँय धाँय टाईप लगता था. पर रोमांचकारी रहती थी फिल्में. वास्तविकता में कल्पना लोक में ले जाने में सक्षम.
फिल्मों की बात करें तो चलिए बात करें अमेरिका में बसे भारतीयों के ऊपर बनी फिल्मों की. ईन में जिस हद तक स्टिरियोटाईपिंग करी गई है लगता है बेचारे "ABCD" बच्चे अपने "FOB" पिताओं से बचपन की खुन्नस निकाल रहे हैं. जरुर देखियेगा एक जैसे की "अमेरिकन चाय" या "ग्रीन कार्ड फीवर" आदि.
तो कुछ बेतरतीब सी खिचङी लिख दी है जिसे साफ करना मतलब और बेतरतीब करना है. चाहे तो चखें नही तो फिर मिलेंगे.
3 Comments:
भैया जी, सही कहिन।
कालीचरण जी अच्छा लिखा है। ये बताइये पूर्व किनारे पर कब पदार्पण हो रहा है?
well....there is a echo in your voice, the second one seems to be mine, or his, or his, or her....
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