Sunday, November 27, 2005

अनुगूँज १५ -- हम फिल्में क्यूँ देखते हैं ?

Akshargram Anugunj
सोचने की बात यह है की हम अभी तक फिल्में क्यों देख रहे हैं? सही सवाल है. आज कल ईतने मनोरंजन के साधन है. टी.वी. के कार्यक्रम, किक्रेट मैच, बास्केटबाल, फुटबाल मैच, वीडियो और कम्पयुटर गेम, दोस्तबाजी, काम, घूमना फिरना आदि. अब ईतने सब के बाद भी किसी के पास फिल्में देखने का समय कैसे बचता है. ऊपर से हिन्दी फिल्में होती हैं पूरे २.५ - ३ घंटे की. अधिकांश में कहानी होती है १ घंटे या कम की. बाकी का समय होता है नााच-गाने, फूहङता, चकाईबाजी, फैॅशनबाजी ईत्यादि का. ईतने समय में आप २ अंग्रेजी फिल्में आराम से निपटा सकते हैं वो भी बिना सरदर्द के. तो लिखना था की फिल्में क्यों देखते हैं और मैं यह पा रहा हुँ की कोई खास वजह नही है हिंदी फिल्में देखने की. कुछ एक बढिया फिल्में बीच - २ में बन पङती हैं जैसे ईकबाल, धूम, बंटी - बबली ईत्यादि जो सही में बांधे रख लेती हैं वरना तो फिल्में ज्यादातर में फास्ट-फोरवर्ड कर के ही देखता हुँ. पर देखता जरुर हुँ. वैसे कईएक फिल्में तो श्रीमती जी के जबरदस्त अनुरोध के बाबत देखनी पङ जाती हैं. ईस श्रेणी में बागबान आती है. जो फिल्में में अकसर देखता हुँ उनमें शुमार है ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का. शहरी मध्यम वर्ग की गुदगुदाती बिना फुहङता की कामेडी देखने को मन बार - बार लालायित जो हो जाता है.
जहाँ तक हालिवुड फिल्मों का सवाल है, मुझे बचपन से जबरदस्त चसका रहा है मार-धाङ की फिल्मों का. अब तक बरकरार है. पहले कुछ समझ नही आता था की डायलाग क्या हैं. "सु सायँ वेरेवर गु हु हुावेरेव " धाँय धाँय टाईप लगता था. पर रोमांचकारी रहती थी फिल्में. वास्तविकता में कल्पना लोक में ले जाने में सक्षम.

फिल्मों की बात करें तो चलिए बात करें अमेरिका में बसे भारतीयों के ऊपर बनी फिल्मों की. ईन में जिस हद तक स्टिरियोटाईपिंग करी गई है लगता है बेचारे "ABCD" बच्चे अपने "FOB" पिताओं से बचपन की खुन्नस निकाल रहे हैं. जरुर देखियेगा एक जैसे की "अमेरिकन चाय" या "ग्रीन कार्ड फीवर" आदि.

तो कुछ बेतरतीब सी खिचङी लिख दी है जिसे साफ करना मतलब और बेतरतीब करना है. चाहे तो चखें नही तो फिर मिलेंगे.

Saturday, November 19, 2005

जीवन चलायमान है

कदम-कदम पर राहें गढता,
कठिनाईयों को चीर तू बढता,
अगिनत आकांक्षाोओं की थामे कमान है
जीवन चलायमान है

पथ दुर्गम, मन लोभी,
प्रिय जनों ने राहें रोकी,
कर्म-भूमी के शोर्य में ही तेरे अहं का निदान है
जीवन चलायमान है

पथ कंटक तेरे पग को दलता,
शूल मन के घावों को सलता,
सेेवामार्ग पर चलने मे ही तेरा सम्मान है
जीवन चलायमान है

Tuesday, November 15, 2005

Blogging Software comparison

http://www.sitepoint.com/article/blog-software-smackdown-review

Sunday, November 13, 2005

My new Grill


Here is the new grill that i am planning to buy. Since i am on diet i am switching to small portion sizes.

Saturday, November 12, 2005

मोटापा

सुनील जी के लेख ने दोबारा सोचने पर मजबुर कर दिया. अमेरिका में खास तौर पर, पर संपूर्ण आधुनिक समाज में फैशन की जो होङ है, उसमें क्यों दुबली-सिकङी कुपोाषित महिलाओं का प्रचलन है यह समझने की में कोशिश कर रहा हुँ. देखा जाए तो मानव शरीर में मोटापे की वजह है की हमारा शरीर जब भरपुर खुराक मिलती है तो आने वाले समय के लिए जमा कर लेता है, कि आगे सूखा, अकाल पङ जाए, खाना ना मिले तो भर लो आज. अगर यही सोच आगे बढाई जाए तो पाएंगे की कमर से चौङी महिलाओं को बच्चों की पैदाईश आसान होती है. आज के जमाने में ईसका कोई महत्व नही है, पर पहले ईसका महत्व होना लाजमी है. कुछ एक प्राचीौन सभ्यताओं के जो चित्र पत्थरों पर पाए गए हैं उसमें तो मोटी - २ महिलाएं हैं. मेरे ख्याल से यह सब किया धरा है फैशन डिजाईनरस ने. क्या है की पतली किकङी महिलाोौौोौओं पर शायद ज्यादा तरह के कपङे लपेटे जा सकते हैं. दुसरी वजह शायद समलैंगिक पुरुष डिजानरस की मानसिकता भी कहीं हो सकती है. हो सकता है की आधुनिक समाज में मोटापे से जुङी बिमारियों की वजह से या फिर दौङ भाग के जीवन में चुस्ती फुर्ती की जरुरत रहती है बजाए बच्चे पैदा करने के ईसलिए दुबलेपन का फैशन है.
वजह जो भी हो कसम से दया सी आ जाती है उनपर जो हैं बेचारी डबल पर लगी हैं जिम में या दौङ रही हैं या फिर अनाप सनाप खा रही हैं दवाईयां दुबलेपन की. कई लोग तो अपने पेट में टाँके लगवाकर पेट काट लेते हैं जिससे भूख कम लगे. जबरदस्त बिलियन डालर ईन्डस्ट्री रही मोटापा भगाने की. मेरे कुछ मित्र भी जो अविवाहित है खास तौर पर ईसी चक्कर में लगे हैं. वैसे अमेरिका में सभी भारतीय जनता का अकसर वजन बढ जाता है. कुछ आलसीपने की वजह से, कुछ बीयर पिज्जा खाने से और कुछ तो यहाँ पर मिलते हाईब्रीड खाने से जिसमें जानवरों को जम कर जलदी वजन बढाने के हारमोन दिए जाते है. तो बेचारे तीस की उम्र के पहले ही मोटे और नौकरी,वीसा के चक्कर में गंजे हो रहे हैं. भारत की लङकी भी अब गैया नही रही. स्मार्ट पति की चाह में कुछ मित्रों को मना भी कर चुकीं हैं. बेचारों पर दया सी आ जाती है. देख कर लगता है की ४ बेटियों का गरीब बाप भी ईस हालत में तो नही होगा.
वैसे सुनील जी से सूझा की मेरी बढी ईच्छा है कुछ समय युरोप में बिताने की. भारत, अमेरिका , सिंगापुर तो रह लिया. अब पश्चिम युरोप और आस्ट्रेलिया रहना है कुछ वर्ष. क्या वहाँ सोफ्टवेयर में साल भर के प्रोजेक्ट मिल सकते हैं. कुछ मिले तो सही है, साल भर के लिए युरोप में रह लुँगा ईसी बहाने.

Friday, November 11, 2005

TB - my experience

As a former suspected TB patient (turned out to be some other bacterial lung infection) i can tell ya the society induced scare is the worst part. I was like ok even if it is TB i will take the medication big deal but everyone else was shitting in their pants about it. I guess some acquaintances even rushed out to write an obituary to me. "Hai Ram , kitna accha ladka tha, abhi abhi to phadai khatam kari thi, honi ko yahi manzoor tha, kismat per kiska jor chale hai". In most movies the hero gets a sympathetic heroine clinging on to him, trying to make his life better, no such luck for yours truely.

The doctors surpised me too. They first did a spot check which was inconclusive to one , positive to another, negative to a third one. My hand became a medical school student testing ground. Yes / No / Maybe. Then came the other tests that proved that it wasn't TB, it was something else which required *gasp* the same set of antibiotics or so i was told. I was like ok give me the medicine and lets move on, shall we. But no ! The doctors wanted to just say they were right and make more money with more tests. I was like will this change the medication I am on? They said no you have already started the course. So i asked them how will this help, they said we will know if you really needed the medication that you now have to finish anyway. To which my response was - middle finger. I went off to a friend's dad who was a doctor. Dude fumed at the other doctors, called them up , gave them a ear full and told me to show up every month, just to make sure the medicine wasn't harming my lever. In US i would have made a killing on such gross over medication i guess. All in all i got to experience the incompetent money hungry noobs that we have for doctors in India. And this is in Delhi (Apollo hospital) so Lord have mercy on poor patients in poorer / remote places.

I had to tell all my friends to cancel the final booze party, stop buying white cloths and be prepared for me living yet another day. I got duely cursed for committing the atrocity of getting their hopes up and still keep on living. All the attention i was being dotted on by distant relatives went away. Thanks to medication all i could eat was Daal and subji with no oil, no spices. And i was supposed to not exert myself too much so the only sport i played was Pacman and chess. No cricket, no swimming and the entire vacation being burnt away. My mom got to spend full 4 months of me being a good mummy's boy eating at home, staying at home, no partying late at nights with friends and in general being so good I became boring. There were no stories i could tell her that she could pretend to exasperate or chide me about. I think the week that medication ended and i was out partying every night, she felt a sense of order restored to her world.

The biggest problem with India and othe countries with TB problem is the poor / uneducated patients. The moment they start getting better dumb shits stop taking medicine get back to work and start preparing in a way to make sure they die. That makes the bacteria drug resistant, eventually killing them and making medicines less effective for everyone else. In the recent times magazine US edition there was an article about some doctor from vietnam who is trying to cope with that so that's a must read.

So this was my TB experience without getting TB. If you do get it rush to the doctor, get atleast 3 cross checks and even then take the medication anyway.

Tuesday, November 08, 2005

Infinity

मंदिर ढा दे
मस्जिद ढा दे
ढा दे जो कुछ ढेंणा
एक बंदे दा दिल ना ढांवि
रब ओंदे विच ही रेंदा

सलमान अहमद के नए एलबम में सुना था, नाम है "Infinity".
बढिया बन पङा है. जरुर खरीद के सुनियेगा.

हँसी

बङे-२ रिसर्च करने वाले तमाम डाक्टरों ने कुछ एक आदमी और औरतों के दिमाग पर तार लगा कर उनको मजेदार किस्से कहानियाँ सुनाए. फिर दिमाग के विभिन्न हिस्सों मे गतिविधि देख कर बोाला की पुरुषों को स्लेपस्टीक कामेडी ज्यादा पसंद रहती है पर महिलाएं कम ही किस्सों पर हँसती है, बहुत सोच विचार कर हँसती हैं पर खुल कर हँसती हैं. पर मेरे हिसाब से यह गलत है. मेरे हिसाब से महिलाएँ तब हँसती हैं जब लाईट वगैरह सही हो जिस्से उनकी हँसी में निखार लगे. आधी तो हँसी हम फूहङ तो नहीं लग रहीं जैसे विचारों मे ही चली जाती है. मैने कई पुरुष मित्रों को बत्तीसी निपोरते, मसूङे फाङते, सर पीट - २ कर आँसु निकाल - २ कर हँसते देखा है. पर किसी महिला मित्र को करीना छाप स्माईल मार के या प्रिति जिंटा की तरह चुलबुली हँसी से कभी भी ज्यादा हँसते नही देखा. यह सब मैं शायद ईसलिए सोच रहा हुँ क्योंकि राजू श्रीवास्तव और सुनील पाल के कार्यक्रम के अलावा मैने बहुत दिनों से ठहाका मार कर नही हँसा है.